गणित और दर्शन परस्पर कितना अन्योनाश्रयित रहे हैं | दर्शन से शून्य व अनंत को उधार लेकर गणित ने इसे अपरिभाषित, अनिर्धार्य तक आगे बढ़ाया | आज दर्शनशास्त्र कुछ पिछड़ता सा दिखता है! नेति नेति कह वेद ! मे कुछ हद तक अनिर्धार्य-अपरिभाषित भी नजर आता है; परंतु यह न-काफी है | व्यक्ताव्यक्त की मनोस्थिती जो भी दर्शन मे दिखती है | वह गणित मे अशान्त-अनावर्तयन के रुप मे परिलक्षित होती है, जिसे अनिर्धार्य-अपरिभाषित के तुल्य नहीं कहा जा सकता | आज दर्शन को गणित कि दृष्टि चाहिये! आखिर ज्योतिष/गणित को वेद का नेत्र भी तो कहा गया है! अस्तु!!
दर्शनशास्त्र में अनन्त-संकल्पना, विराट प्रकृति के प्रेक्षणानुभूति से अवतरित हुआ तो गणित को यह ‘शून्य से भाजन’ की समस्या से प्राप्त हुआ | गणित के इस जटिल संक्रिया (शून्य से भाजन) का ब्रह्मगुप्त ठीक से वर्णन नहीं कर सके और बाद में भास्कराचार्य ने भी इसका गलत उल्लेख भले ही किया; फिर भी वे अंनत का प्राप्त कर चुके थे | बीजगणितम् में वे शून्य संक्रिया लिखते है -
खयोेगे वियोगे धनर्णं तथैव
च्युतं शून्यतः तद् विपर्यासमेति |
वधादौ वियत्खसय खं खेन घातो
खहारो भवेतखेन भक्तश्च राशिः ||
शून्य की समस्त संक्रियाओं संकलन, व्यवकलन, गुणन, वर्ग-वर्गमूल तक सही बताकर भास्कर अंततः भाजन में उलझ ही जाते हैं | शून्य से विभक्त राशी को वे ‘खहर’ राशी कहते हैं | पुनश्च खहर (अंनत) की संक्रियाओं और प्रकृति को बताने हेतु दर्शन की सहायता लेते हैं |
अस्मिन विकारे खहरेण राशा -
वपि प्रविष्टेष्वपि निःसृतेषु |
बहुष्वपि स्यात् लय सृष्टिकाले
ऽनन्तोऽच्युते भूतगणेषु यद्वत ||
यहाँ, ∞ + ∞ = ∞ , ∞ + कोई संख्या = ∞ , के साथ ∞ - ∞ = ∞ कहते समय शायद उनके मन मे ईशोपनिषद का यह तथ्य भी रहा हो -
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
स्यात् भास्कर ने 'पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते' को कुछ यों समझा कि अनन्त से अनन्त घटाने पर भी अनन्त ही शेष रहता है | जो भी हो इतना तो मान्य है की भास्कराचार्य अपरिभाषित - अनिर्धार्य के काफी करीब थे |
वास्तविक संख्याओं के क्षेत्र में शून्य से भजन अपरिभाषित है | अर्थात ऐसा व्यंजक जिसका कोई अर्थ नहीं होता और जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती | एवम् कोई भी गणितीय व्यंजक अनिर्धार्य कहा जाता है ; यदि वह निश्चित रूप से निर्धारित नहीं किया जा सके | सीमा प्रमेयों में 0, 1 और अनंतता ( ∞ ) सहित कुल सात व्यंजक ( 0/0, ∞/∞, 0 × ∞, ∞ − ∞, 00, 1∞ एवं ∞0 ) अनिर्धार्य हैं |
आप सभी को अनंत चतुर्दशी की हार्दिक शुभकामनाएँ ! एक बात और अनन्त के डोरे के चौदह गाठों का सात अनिर्धार्य व्यंजकों से कोई सम्बन्ध है क्या ?