रविवार, 19 सितंबर 2021

हरि अनन्त हर कथा अनन्ता

  प्रिय  दैनन्दिनी 

       आज पितामही जी ने अनन्त व्रत कथा सुनने की इच्छा प्रकट की, तत् हेतु मैं गूगल बाबा के शरण में गया। काफी देर तक सर्च करने के बाद भी संतोषजनक कथा विवरण नहीं मिला। फिर मैंने जो कुछ विवरण उपलब्ध था, उसके और स्मृति के आधार पर काम चलाने का विचार किया। माता जी ने कहा कि “लंगड़ा पंडित की दुकान से किताब लाओ और फिर ढंग से कथा कहो।” मध्याह्न होने वाला था। अतः मै अनुज-छोटू के साथ रामरेखा घाट गया और लंगड़ू के आपण से पुस्तक लाया। घर आया तो पिताजी कच्चा सूत से अनंत बनाने में व्यस्त थे। चुकि मुझे भी अनंत बनाने की कला आती है इसलिए सूत में चौदह गाँठ लगाने के काम में जुटना पड़ा। अनंत के सूत में गीरह लगते हुए बचपन की स्मृतियाँ नेत्रों में नृत्य करने लगीं। दैनिके ! आज गांव पर सुबह से ही हम लोग अनंत बनाने के लिए उत्साहित हो जाते थे। सूत तो हमें कोई छूने नहीं देता, हम बच्चे केवल सूत पूरने में सहयोग करते और बृद्ध, गुनी लोग अनत बनाते। अनंत बनाने की जिद्द पर हम लोगों को लम्बी लम्बी दूब(दूर्वा) लाने को कह देते और फिर हम लोगों को दूर्वा से ही गांठ लगाने का प्रशिक्षण दिया जाता। अरे! दैनिके क्या बताएं... दूर्वा बहुत नाजुक होती, बिलकुल तुम्हारे तन जैसी। फुस्स ...टूट जाती। फिर भी किसी तरह मैंने तो अनत बनाने की कला उसी से सीखी। बड़का बाबा अपने लिए बहुत मोटा अनत बनाते थे  और साल भर अपने बाह पर गेवठा बांधे रहते। बाकि सभी तो बस एक दिन वाले थे। शीघ्र ही अनत बन गया फिर पूजा के बाद कथा पढ़ते हुए मन में नाना प्रकार के विचार आ रहे थे… यह कथा कब लिखी गयी? अनंत आखिर है क्या? अनत के डोरे में चौदह गांठ ही क्यों होती है? … 

       प्रिय दैनन्दिनी … जैसा की सभी कथाएं वनवासी पाण्डवों द्वारा श्री कृष्ण से अपने दुःख के निदान हेतु प्रश्न से आरम्भ होती है; यह कथा भी अपवाद नहीं। अनत की कथा की नायिका शीला नाम की एक कन्या है। कौण्डिन्य मुनि द्वारा पाणिग्रहण के पश्चात शीला पति गृह को विदा होती है। मार्ग में यमुना के किनारे छकडा(बैलगाड़ी) रोककर कौंडिन्य मुनि संध्यावंदन हेतु जाते हैं। मध्याह्न का समय था, शीला ने कुछ स्त्रियों को अनंत भगवान की पूजा करते हुए देखा तो उनके पास जाकर इस दिव्य उपासना पद्धति की जानकारी प्राप्त की और उनके साथ अनंत भगवान का पूजन किया। कथा कहती है कि एक बार पति ने नाना मणियों से अलंकृत शीला के भुजा पर अनंत के डोरे को देखा और हे शीले! तुम यह डोरा क्या मुझपर वशीकरण प्रयोग के लिए बाँधी हो? ऐसा कहते हुए उसने डोरे को तोड़कर अग्नि की ज्वाला में फेक दिया। इस पापकर्म से कौण्डिन्य जी दरिद्र हो गये और वन वन भटकते हुए सब तरफ…  कोऽनन्तः?, कोऽनन्तः? पुकारने लगे। 

         प्रिये! …  कोऽनन्तः, कोऽनन्तः? … मनुष्य के सामने यह दार्शनिक प्रश्न सदियों से है।  यह कथा गीता से कुछ दार्शनिकता उधार लेती है। …  

 अनन्त इत्यहं पार्थ मम रूप निबोधय । आदित्यदिग्रहात्मासौ यः काल इति  पठ्यते।। 

 कलाकाष्ठामुहूर्तादिदिवारात्रिशरीरवान्।  पक्षमासर्तुवर्षाणि      युगकालव्यवस्थाया।। 

 योयं कालो मया ख्यातः सोनन्त इति कीर्त्यते । … 

 अनादिमध्यनिधनं कृष्णं विष्णुं हरिं शिवम्।  … 

 वसवो द्वादशादित्या रुद्रा एकादशा स्मृताः।  सप्तर्षयः समुद्राश्च पर्वताः सरितो द्रुमाः।। 

 नक्षत्राणि दिशो भूमिः पातालं भूर्भुवादिकम्। … 

       स्पष्ट है कि मनुष्य द्वारा प्रकृति के प्रेक्षणों और असीम आकाश, समुद्र इत्यादि के कारण दार्शनिकों के मन में अनंत विषयक संकल्पना का उदय हुआ। संभवतः भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी के दिन गुरुकुल के आचार्यों और विख्यात दार्शनिक विद्वानों की संगोष्ठी आयोजित होती हो। और इस तरह की संगोष्ठियों में अनंत जैसे दार्शनिक विषयों पर चर्चाएं भी होती होंगी।(आज तो हम केवल कथा पढ़कर/सुनकर और पुआ-पूड़ी खाकर इस अनंत का इतिश्री कर देते हैं; हमें अंनत के बारे में सोचने का अवकास कहाँ!?) सम्भवतः सुते में गांठ लगाना गणना की प्रणाली हो या विद्वानों की चतुर्दश विद्याओं का प्रतीक हो। जो भी हो परन्तु चौदह की संख्या से सर्वप्रथम चौदह भुवन याद आते हैं और कथा भी इस बात का उल्लेख करती है।(नक्षत्राणि दिशो भूमिः पातालं भूर्भुवादिकम्। …) मन में सहज ही एक प्रश्न उठता है कि क्या इन चौदह भुवनों का कोई भौतिक अस्तित्व भी हैं?... दैनिके! हाँ, इन सबका भौतिक अस्तित्व हैं। ये चौदह भुवन हमारी धरती के ही विभिन्न उपभाग हैं। परन्तु यहाँ हम इसके विस्तार में नहीं जायेंगे; इस विषय पर सप्रमाण चर्चा फिर कभी।  दैनिके! तुमको अनत बनाना आता है?... इसमें दोहरे डोरे में चौदह गांठ लगाते हैं…कुछ समझ में आया! दोहरे डोरे में चौदह गांठ… मतलब की अट्ठाईस(२८) फंदे लगाए जाते हैं। दैनिके! … नक्षत्र कितने थे? २८ ही थे न...। … जानती हो अनत के डोरे का जो अंतिम फंदा है न… वह आधा ही लग पाता है…चाहे कितना भी प्रयास कर लो! अट्ठाईसवाँ नक्षत्र अभिजीत पूर्णांक नहीं है न…तनिक विचार करो… मनु भी चौदह ही होते हैं न!... काल की अनंतता … मन्वान्तर। कथा तो सात की संख्याओं (सप्तर्षयः समुद्राश्च पर्वताः सरितो द्रुमाः ) को भी समाहित करती है।  दैनन्दिने! हमारे पुरखों की सोच कितनी उन्नत रही होगी न … एक ही प्रतीक में इतना कुछ समाहित कर दिया।

        प्रिये दैनन्दिनी!  शीला को पड़ते हुए … मुझे लीला याद आ गयी। 

        अरे रे रे … रुको रुको!  … लीला … लीलावती!  भास्कराचार्य की पुत्री? हाँ हाँ वही, लीलावती। इस बारह वर्षीय बालिका ने अपने पिता भास्कराचार्य जी को बहुत बड़ी संख्याओं को निरूपित करने के लिए एक ऐसी युक्ति सुझायी, जिसका हम आज भी प्रयोग करते हैं। यह बालिका ‘शतसहस्र’ जैसे शब्दों की जन्मदात्री थी। अर्थात लीलावती ने बहुत बडी सङ्ख्यओ को घात के रूप मे निरुपित करने की अद्भुत युक्ति सुझायी कहते हैं कि अपनी बेटी के विलक्षण मेधा से प्रभावित होकर भास्कराचार्य ने तत्कालीन समाज के विरोध के बाद भी लीलावती को गणित पढ़ाया। (क्या पता मुनि कौण्डिन्य की पत्नी शीला भी विदुषी रही हो? एक बात तो स्पष्ट है, वैष्णवों ने अनंत विषयक दर्शन को काफी आगे बढ़ाया।) भास्कराचार्य अपनी पुस्तक बीजगणितम् में अनंत के बारे में लिखते हैं - 

         खयोगे वियोगे धनर्णं तथैव च्युतं शून्यतः  तद्  विपर्यासमेति।

         वधादौ वियत्खसय खं खेन घातो खहारो भवेतखेन भक्तश्च राशिः।।

     भास्कराचार्य यहाँ शून्य से विभाजन को ख-हर राशि (अनंत) कहते हैं; और फिर ख-हर राशियों का स्वरूप बताने के लिए दर्शनशास्त्र की अनंत संकल्पना का प्रयोग करते हैं। 

         अस्मिन विकारे खहरेण राशा - वपि प्रविष्टेष्वपि निःसृतेषु। 

         बहुष्वपि स्यात् लय सृष्टिकाले ऽनन्तोऽच्युते भूतगणेषु यद्वत।।

      दैनन्दिने! … इस विषय पर पूर्व में भी हमारी चर्चा हो चुकी है न… अच्छा होगा की तुम अनन्त संकल्पना वाले लेख को फिर से देख लो। अरे यार! तुम बहुत भुलक्क़ड हो। …. अरे रे रे … जानता हूँ यार! जनता हूँ।  मैं क्षमा प्रार्थी हूँ प्रिये!... इसके लिए। पर क्या करूं? मैं ठहरा निपट आलसी। प्रति सप्ताह लिखने का वादा करके भी वर्षों बाद लिख रहा हूं।  ... अच्छा! एक बात सहज ही ध्यान आकर्षित करती है - सीमा प्रमेयों में 0, 1 और अनंतता ( ∞ ) सहित कुल सात व्यंजक  ( 0/0, ∞/∞, 0 × ∞, ∞ − ∞, 00, 1 एवं  ∞0 ) अनिर्धार्य हैं। आश्चर्य है न… ऋणचिह्नों के साथ इनकी संख्या चौदह हो जा रही हैं। ...हाँ, हाँ! मैं जानता हूँ कि यह बहुत बाद कि परिकल्पना हैं। फिर भी इसका अनन्त के चौदह गांठों से इस तरह से सम्बन्ध बन जाना…! आश्चर्यजनक ही हैं न!  

      अच्छा छोड़ो ये सब... ये बताओ कि प्रस्थ जानती हो?...  नहीं न…। यह पुराने समय में अन्न मापने का एक पैमाना होता था जिसमें अन्न,जल इत्यादि को वजन के हिसाब से नहीं अपितु आयतन के हिसाब से मापा जाता था। आज भी हम गांवों में अनाज को बर्तनों से माप कर सहज ही विनिमय कर लेते है न…!।  देखो न… इस बारे में भास्कराचार्य लीलावती में कितना सुन्दर परिभाषा देते हैं- 

     हस्तोन्मितैः विस्तृतिदैर्घ्यपिण्डैः  यत् द्वादशास्रम् घनहस्तसंज्ञम्।

धान्य-आदिके यत् घनहस्तमानम् शास्त्रोदिता मागधखारिका सा॥

द्रोणस्तु खार्याः खलु षोडशांशः  स्यात् आढकस्द्रोणचतुर्थभागः।

प्रस्थस्चतुर्थांशः इहाढकस्य प्रस्थ-आर्रय्ङ्घ्रिसाद्यैस्कुडवः प्रदिष्टः ॥ 

     अर्थात एक घन हस्त (एक हाथ लम्बा,एक हाथ चौड़ा, और एक हाथ ऊंचा पात्र का आयतन) को खारि कहते थे। खारी का सोलहवां भाग को द्रोण कहते थे और द्रोण के चौथाई को आढक। हाँ हाँ … वही  आढक, जिसमे की वर्षा के जल का मापन किया जाता था। और हम अक्सर सुनते है की पंडित जी के पतरे में इस साल इतने आढक वर्षा लिखी है क्या तुम जानती हो… इसी  आढक के चौथाई भाग को प्रस्थ कहते हैं। दैनिकेँ! … व्रत का विधान पूछने पर स्त्रियां शीला को क्या बताती है?... स्त्रियः ऊचुः -  शीले सदन्नप्रस्थस्य पुन्नाम्ना संस्कृतस्य च। … मतलब की अनत के दिन एक प्रस्थ अनाज का पुआ/मालपुआ बनाया जाता है। कुछ समझ में आया!?... यह कथा आठवीं से बारहवीं सदी के बीच लिखी गयी है। कम से कम शब्दप्रयोग और भाषा शैली से तो यही लगता है, मुझे। 


       दैनिके! आज के इस विज्ञान युग में हरित क्रांति ने लगभग सबके लिए अन्न सुलभ कर दिया है। खाद्य सुरक्षा की गारंटी वाले युग में हम लोग अन्न को उतना महत्व नहीं देते। परंतु हमेशा से स्थिति ऐसी नहीं रही है। हमारे पुरखों ने अन्न का अभाव देखा है। पुरनियों की वाणी कितना मार्मिक दृश्य प्रस्तुत करती है, “की पेट भरे रामनवमीआ, की अनतवा भाई। केहू से पेट ना भरे त, भरे जिऊतिया माई।।”  आज इस व्रत के साथ हम सभी अन्न संरक्षण हेतु भी संकल्प व्रत को धारण करें।  अस्तु! 

      प्रिय दैनन्दिनी! … अनन्तचतुर्दशी की अनन्त शुभकामनाओं के साथ… अनन्त प्रेम..! 

                                       तुम्हारा प्रेमाकांक्षी     ~    रविशंकर मिश्र 


5 टिप्‍पणियां:

  1. इतनी कठीन बातें,शब्दों को....इतनी आसान भाषा में कहना हर किसी के वस की बात नहीं होती।कई बार हमलोग हमारे सामने होती हुए भी कुछ चीजों के महत्त्व को समझ नही पाते है।इनके महत्व को अपनी लेखनी से इतने आसानी से समझाना बहुत बड़ी बात है।इसके लिए ढेर सारी शुभकामनाएं और बहुत बहुत बधाई।

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  2. आपने जिस प्रकार के साधारण से दिखने वाले बिंदुओं पर जो विशिष्ट चर्चाएं किए हैं। उन चर्चाओं को पढ़ने के पश्चात मेरे पास ऐसा कोई शब्द ही नहीं ! जिससे मैं आपके लेखनी को अलंकृत कर शुभकामनाएं प्रस्तुत कर सकूं।
    आपके मस्तिष्क में जो रचनात्मक गतिविधियां हैं, वह अत्यंत ही सराहनीय है। तथा आज के युवा पीढ़ी के लिए आप प्रेरणा स्रोत भी है। सनातन धर्म में चले आ रहे त्योहारों को एक 'रीति' समझ कर के समाज का बाहुल्य संख्यक लोग पालन कर रहे हैं पर आपने अपनी लेखनी के माध्यम से एक नया नजरिया दिया है उसे समझने का ।
    आखिर कोई भी रीत ऐसे ही नहीं बनी उसके पीछे बहुत बड़ा कारण है जिस को ढूंढने का जिज्ञासा हर युवा को होना चाहिए । इसीलिए तो मैंने कहा - आप युवा पीढ़ी के "प्रेरणा स्रोत" हैं।

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आपकी शालीन और रचनात्मक प्रतिक्रिया मेरे लिए पथप्रदर्शक का काम करेगी। अग्रिम धन्यवाद!