सोमवार, 27 दिसंबर 2021

सपनों का सत्यानाश

   प्रिय दैनन्दिनी

           

            असफलता बहुत दुःखद है न ! विज्ञ जनों का कहना हैं कि हमे असफलता से घबराना नहीं चाहिए, हमेशा सकारात्मक सोचना चाहिए। सही है! पर ऐसा कर पाना बहुत ही कठीन हैं। और तब तो और जब असफलता हाथ पैर धोकर ही नहीं, पूरा नहा धोकर पीछे पड़ जाये। बार बार, हर बार, हर प्रयत्न पर, हालात जब हर हाल में हार पहनाने पर ही तूल जाए तो इसे क्या कहें?! अभाग्य!?

           दैनिके! क्या तुम भाग्य पर विश्वास करती हो?! भाग्य का तो पता नही, पर दुर्भाग्य जरूर होता हैं। कम से कम मुझे तो यही लगता हैं। यूँ तो सारा देश आजादी का अमृत महोत्सव मनाने में जुटा हैं। … काहे की आज़ादी! कैसी आज़ादी?! युवा लेखकों आज़ादी का इतिहास लिखो! स्वयं का भविष्य तो पता नहीं, इतिहास लिखो!  … 25 Dec, बड़ा दिन को सांता की संतई ने तो गिफ्ट में ऐसा हार पहना दिया कि दिन बिताना कठिन हो गया। क्या दिन सच मे बड़ा हो गया?! … मालवीय जी की जयंती थी। बगिया के मालियों ने तो नोच कर फेंक दिया! बहुतों को बालात् खरपतवार बना दिया जाता है। आखिर कोई करे भी तो क्या करें! पुष्पों के लिए जगह कम जो हैं। तो क्या विधि ने हमारे भाग्य में मात्र वनों में ही खिलना बदा हैं। …  संघर्ष हैं, जीव जगत में संघर्ष हैं। ऊर्जा पाने को! सभी ऊर्जावान बने रहना चाहते हैं। पर सकारात्मक बने रहना कई बार ऊर्जावान बने रहने से भी ज्यादा कठिन होता है। ऊर्जा तो जैसे तैसे प्राप्त किया जा सकता हैं। लड़ झगड़कर, चोरी चमारी से। बहुत से तरीके हैं; पर सकारात्मकता?! … सपने देखने चाहिए! खूब सारा!! और हर संभव प्रयत्न करने पर भी, जब एक भी सपना पूरा होने का नाम ही ना ले तो क्या करें!? फिर ऐसे सपनों का सस्ता मनोरंजन के सिवा क्या उपयोग!? कुछ नहीं! पता नहीं, कलाम साहब, सपनों के पीछे इतने दीवाने क्यों थे! शायद उनके सपने पूरे हो जाते होंगे। पर हमे तो सपने देखना भी गुनाह हैं। कुछ सोचे और करें; क्या मजाल कि वह सफल हो!! अपनी सफलता तो छोड़ ही दो! यहाँ तो हालात इतना खराब है कि यदि दूसरों का सहयोग भी कर दें; तो उस बेचारे का भी सत्यानाश हो जाता है। … प्रिये! दैनिके!! क्या सच में यह राहु की महादशा हैं!? 


 बुद्धयाविहीनमतिविभ्रमसर्वशून्यं,

     विश्वं भयाति विषमापदमृत्यु तुल्यम्। 

 व्यधिवियोगधनहानिविषानि चैव

      राहुर्दशासृजतिजीवितसंसयं च।।

       … सच में जीवित संशयम् च। यूँ तो पंचम में बैठकर लग्नस्थ बृहस्पति से दृष्टि, इसने मुझे सर्वज्ञता दिया हैं। पर सच मे, पिछले कई सालों से  त्रस्त कर दिया हैं इस माया ग्रह ने। इतना त्रस्त किया हैं कि मेरे जैसा सिद्धांतवादी ने भी फलित पढ़ने लगा। आज स्थिति यह है कि कुंडली पढ़कर दूसरों का भविष्य अनुमानित(Predict) करता हूँ। पर अपना?!? मति मारी गई हैं मेरी। …ज्योतिषी कहते हैं की प्रतीक्षा करो!  पर कुछ ढंग का हो नहीं रहा! आखिर बृहस्पति क्या उखाड़ लेंगें?! क्या बरसा जब कृषि सुखाने? आखिर कुछ तो होना चाहिये?! कुछ भी तो नहीं हो पाता। सारे प्रयास निरर्थक हो जाते हैं।…  हे! फलित के प्रवर्तकों! क्या जन्मांक और गोचर से भी ज्यादा बलवान हैं इसका दशा बल?! यदि ऐसा हैं तो फिर आग लगे तुम्हारे फलित शास्त्र को। … दैनिके! सच कहूँ तो अब कुछ नया सोचने और करने में डर लगता हैं। जब कुछ होने जाने वाला नहीं तो फिर किया ही क्यों जाये?! पर मैं करूँ तो क्या करूं?! दिमाग में हमेशा कुछ ना कुछ नया चलता ही रहता है। … भ्रमतीव च मे मनः। तो क्या केवल पुष्प दर पुष्प भटकते ही रहना है?! या कुछ मकरन्द भी एकत्र हो पायेगा?! मधुमक्खी!!! काहे को मधुमक्खी! मधुरता तो बचा नहीं। विधि की लेखनी से छला! बस स्याही की स्याहता ही शेष बचा है। समझ मे नहीं आता कि क्या लिखें? ...असीम स्याहता!