मंगलवार, 24 अक्तूबर 2017

दिया


किसी ने क्या दिया जलते दिया को ?
दिया बस नाम  उसका रख दिया है ||

जलाता  स्वयं  वह  अपने हिया  को,
निशा  मे दिव्य  ज्योति भर दिया है |
तिमिर  घनघोर  जब छाये  धरा पर,
अमावस  कालिमा    गहराती  जाये |
दिया ने  अग्नि को  धर के  हिया मे,
निशा मे  ज्योतिरञ्चल  भर दिया है |
सँभाले शीश  पर   आलोक  मण्डल,
‘रवि’ की रिक्ति को भी भर दिया है ||१|| 



शिर पर दीप-शिखा  ज्वाला जलाकर,
उदर बिच जीव शक्ति ही  पिघलकर,
सिमटकर  बातियों  मे बह  चली है |
भुवन मे आज यह ज्योति जली है ||

उबलता रक्त जिसका जल सका है,
वही बन दीप!  जग मे जी सका है |
अधेरा  बीच   रहकर   जो  जरे  हैं,
वही हैं  दीप!  जो  तम  को  हरे हैं |
शिर  का  क्रिट ही,  अग्निशिखा है,
नहीं वह सूर्य,  मिट्टी  का दिया है ||२|| 

गलाकर धृत  उसे फिर सोखकर के,
स्वयं बाती  जली है  ज्योति बनके |
रुई का तन  हुआ  कालीख  उसका,
और शिर  ताप  से संतप्त  उसका ||

रुई  का  कोल शिर पर लाल होकर,
और घृत-वाष्प अपने शीश धरकर |
बनाकर केश निज, धनश्याम जैसी,
दहन से बन रही विद्युत छटा सी |
हिरण्यमय क्रिट, अपने शीश धारे,
गले मे  नील-मणी  की हार ड़ाले |

उबलते  तेल  मे  शव  सो  रहा  है;
तीली  मुखाग्नि  उसको  दे रहा है |
समर्पण स्वत्व का वह कर दिया है,
दिया  का नाम  सार्थक ही दिया है ||३|| 


कभी ध्रुव सी अटल, यह ज्योति जलती,
पवन  आगोस   मे  यह  नृत्य  करती |
पतंगे  आ  के,    इसका   ग्रास   बनते,
शलभ  सब  लौ  मे  भस्मीभूत  होते ||
उबलते  तेल  मे कुछ  कीट  आ  के,
किनारे  बह  गये  जलते  दिया  के |
नहीं  कुछ  इसपे  उनका  जोर चलता,
शलभ सेना के सम्मुख,  लौ मचलता |
अमावस  का  अधेरा,     हारकर   के,
सिमट  बैठा  है  कदमों   मे   दिया है ||४|| 



प्रकिर्णित  रश्मि  को  करती  रही  है,
दिया  यह  रातभर   जलती  रही   है |
घृत  के  अंत  को  अनुमान   करके,
लौ  को  मन्द   पड़ता   जान  करके |
दिया  तल   का  अघेरा  मुस्कुराया,
विजय  की  आस  मे  पग को बढ़ाया |

दिया  ने  अंत  अपना  जान  करके,
बाती  जल   उठी   उत्साह   करके  |
बहुत धुधुआ चुकि   अब आग फूटे,
अग्नि पुंजित,  किरण के वाण छूटे |
अधोतल  का  अधेरा  लुप्त  करके,
क्षण भर  के लिए,   आलोक करके |
दिया ने  प्राण  भी  निज दे  दिया है,
दिया  का  नाम  सार्थक  ही दिया है ||५||

किसी ने क्या दिया जलते दिया को?
दिया बस नाम उसका रख दिया है ||



          ~  रविशंकर मिश्र 

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