अहो तत्वज्ञोऽहं हृदयनिविडस्यान्धनिचितं
सकामोवाभाग्योहतकृपणसाऽर्तो च कुटिलम्।
रतो नित्यं रासोः हरतिपटगोपीश्च निलजः
तथामिच्छाभिश्च हृदयवसितो कृष्णछवियः।।
~ रविशंकर मिश्र
प्रतीयमान अर्थ :- अहो! मैं बड़ा ही तत्वज्ञ अर्थात महान मूर्ख हूँ। क्योंकि एक तो मैं अत्यंत कामी हूँ; भाग्यहीन, कृपण, दुःखी और कुटिल हूँ। मेरे हृदय में घना अंधकार व्याप्त हैं। और इतना कुछ होने पर भी मेरी इच्छा यह हैं कि नित्य रासलीला मे रत, गोपियों का वस्त्र चुरानेवाले उस निर्लज्ज की काली छवि मेरे हृदय में निवास करें।
वास्तविक अर्थ :- अहा! भले ही मैं अत्यंत कामी, भाग्यहीन, कृपण, दुःखी और कुटिल हूँ। मेरे हृदय में भले ही घना अंधकार व्याप्त हैं। तथापि मेरी इच्छा यह हैं कि नित्य प्रति श्री/लक्ष्मी के दान में निरत रहकर संसार के पालन-पोषण के कार्य को निष्पादित करने वाले; मोक्ष रूपी दीप्ति पर से शारिवा/श्यामलता के आवरण को हरने वाले, उस योगेश्वर श्रीकृष्ण की छवि मेरे हृदय में निवास करें। अतः मैं निश्चय ही तत्वज्ञ अर्थात परमार्थ को जानने वाला हूँ।
रविशंकर मिश्र!
(आज भगवान श्रीकृष्ण की अनुकम्पा से योगेश्वर की स्तुति हेतु मैं(रविशंकर) इस छोटे से पद की रचना कर पाया। इसमे श्लेष का आश्चर्यजनक अनुप्रयोग हो गया हैं। आप सब पढ़िये और आशीर्वाद दीजिये।)
आप सबको श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं।
भाद्रपद कृष्ण अष्टमी(श्रीकृष्ण जन्माष्टमी), २०७८ विक्रमी; सोमवार।
30 August 2021, Monday