गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

वैशाख शुक्ल प्रतिपदा


          इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
      यो अस्याध्यक्ष: परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद।।
             (ऋग्वेद,मण्डयल10, सूक्तग129,मंत्र 7)

   विशुद्ध प्राकृतिक, मार्जनी स्वभाव वाली प्रकाशनगरी काशी में आनन्द स्वरूप महादेव, त्रयताप सहने की प्रेरणा हेतु भक्तों को समयानुकूल आनन्द प्रदान करते रहते हैं | तभी तो इसे आनंदवन कहते हैं | काशी में प्रायिकता (संजोग) विश्वनाथ की प्रधान इच्छा होती है | तभी तो कहते है, “यहाँ बाबा के इच्छा से ही बाबा का दर्शन मिल सकता है |”
   दशाश्वमेध (रुद्रसरोवर की भूमि) पर चंचल गंगा की लहरों में प्रतिबिंबित आरती-मलिका दर्शन की इच्छा बाबा की सप्तर्षि-आरती तक खींच लाएगी, किसे पता था !  गंगा आरती आरंभ के शंखध्वनि के साथ ही हम मित्रों का मन अनायास ही बाबा विश्वनाथ के दर्शन की अभिलासा से आंदोलित होने लगा |  हम काशी की विसर्पी गलियों से होते हुए बाबा के पास चल पड़े |  मंदिर पहुँचे तो आरती हेतु प्रबंधन किया जा रहा था |  
   वैशाख शुक्ल प्रतिपदा आरंभ के साथ ही, प्रथमतः महादेव की दिव्य सप्तर्षि-आरती देखकर मन आनन्दित एवं जन्मोत्सव धन्य हो गया |  काशी निवास के इस सातवें वर्ष में, सप्तर्षि-आरती में अर्पण हेतु मात्र सात सिक्कों ने तो सात संख्या का एक मनोरंजक संजोग बना दिया ! बस!!! हम मित्रों की संख्या पांच थी, … मैं, शक्ति, कनिष्क, भास्कर और शुभम् |  गर्भगृह के द्वार पर से मैंने आरती-क्रिया का आद्योपान्त प्रेक्षण किया |  परन्तु काफी प्रयास के बाद भी आरतीगायन के शब्दों को किंचित भी नहीं समझ पाया |  स्यात् यह दक्षिणभारतीय भाषा में था |  बाबा का मनोरम श्रृंगार और अर्चकों द्वारा आरती दोलनों को देखना और लयबद्ध घण्टियों का सुमधुर ध्वनि अत्यंत मनमोहक लगा | अंत में गर्भगृह में बाबा के समक्ष आरती लेना और अर्चक से शिवार्पित मंदारपुष्प माला प्राप्त करना सदैव अविस्मरणीय रहेगा |

   [ यह मेरा पहला सप्तर्षि-आरती दर्शन और शक्ति का प्रथम विश्वनाथ दर्शन था | बुधवार का सांध्यकालीन विवरण, वैशाख शुक्ल की प्रतिपदा अपने जन्मदिन पर विश्वनाथजी की कृपा से सप्तर्षि-आरती  दर्शन | ]

सोमवार, 17 अप्रैल 2017

वसंत - प्रभात


मधु - माधव  में  पवन  सु-मन्द ,

                 लेकर  चला  मधुप  मकरन्द ।   

मदन मद  मत्त,  मृदुल मन  छन्द

                हृदय  भी  मचल  रहा स्वछन्द ॥

 

भ्रमर    के    गुँजन    का   संगीत

                बढ़ाता   हृदय - हृदय   का   प्रीत ।

जगत  की अनुपम  न्यारी  रीति

               मदन का  रति पर अतिशय प्रीत ॥

 

झुके  तरु - डाल  की  लिपटै बेल ,

               जगत  जड़ - चेतन बीच सुमेल ।

जलधि  स्रोतस्विनी  करते  खेल ,

                मृदुल  से  खारे  जल  का  मेल ॥

 

उषा  का    प्राची  मे  आभास ,

               निलय  के  अभ्र  हुए  अरुणाभ ।

चहकते  चटका - चटकी  चित्त

                चितेरा  चित्रित   करता   वृत्त ॥

 

क्षितिज  पर  अर्धवृत्त  परिवृत्त

                प्रकिर्णन - किर्णन मय यह कृत्त ।

कुमुद  कुल   कोश  करें   संवृत्त

                 कमल  के  कोश   हुए   विवृत्त ॥

 

मिलावे  मलयानिल  दो   डाल

                 झूमते   वृक्ष   लिये    जयमाल ।

तिलक  'रवि'  का प्राची के भाल

                 नदी  सिर  शोभे  सिंदूर  लाल ॥

 

होता   पर्वत   पर    हिमपात

                 गिरता  स्व  चरणों  में  प्रपात ।

पतन  का उसे  अधिक  संताप

                  की  धोने वसुधा  का परिताप ॥                   

 

नदी  कल - कल  बहती  दिन-रात

                  सलिल  शीतल  सिंचित  तृण -पात ।

बीत   गई   हिम तम   की  रात

                   ऋतु  -  वसंत   का  यह   सुप्रभात ॥

               

                                      ~   रविशंकर मिश्र :

  

   ( यह कविता ‘वसंत प्रभात’ दो वर्ष पूर्व लिखी गई थी |  यह कविता  श्रृंगार रस और श्रृंगार छंद में प्राकृतिक प्रेम का श्रृंगारिक वर्णन  प्रस्तुत कराती हैं |