मंगलवार, 19 मार्च 2019

गोबर की होली

     गांव की होली, नागरों की तरह तो होती नहीं! रंगों का स्टाक चुकते-चुकते छीना-झपटी के साथ कूरता फार होली शुरू होती है साथ ही गोबर कीचड़ बरस पड़ता है| 
तो प्रस्तुत है, कूरता-फार होली पर एक कविता, सवैया और कवित्त छंद मे!

गोबर की होली


रंग अबीर गुलाल उड़े मन रंग भरे तन रंग रगें हैं|
बाल किशोर लिए पिचकारि पुकारि सबै रग ड़ारि रहे हैं||
लाल हरा मिल रंग लगूर बनाइ सभी हरसाइ रहे हैं|
रक्त व कृष्ण मुखा बन बानर और सभी को बनाइ रहे हैं||

सगरो हुड़दंग मचावत टोलि गली गलि रंग लगाइ रही है|
घर द्वार प जाइ पुकारि बुला बरजोरन रंग लगाइ रही हैं||
सुनते हुडदंग क शोर भगे तिनको दउराइ धराइ रही हैं|
डरपोक कहाइ बचे भग के कुछ आइ धराइ रगांइ रहे हैं||

झपटा झपटी पकड़ा पकड़ी कर फारत यों सबके कपड़ा हैं|
कुरता फार होरि सब खेलत गोबर ले तन मे रगड़ा है||
गगरी कुछ लेकर गोबर घोरि व मारि के फोरत और घड़ा हैं|
गहि हाथ टमाटर फेकत हैं अरु गोबर कींचड़ बरस पड़ा हैं||

धइके दबोचे एक, गोबर मे बोरे एक
नाली मे घसीट के कींचड़ मे सानी देत |
हाथ से उढ़ाई पाँकि, दूसरा प फेकत ह
काछि-काछि नाली, पाँकि-पानी बरसाई देत||
चिथड़ा लपेटे कांधे, कमर मे बाँधत ह
अधनंगे रंगे उऽ अज़बे दिखाई देत |
होली की हमजोली, खोरी-खोरी दौरी-दौरी
होली हऽ होली हऽ शोर त मचाई देत ||

रविशंकर मिश्र