किसी ने क्या दिया जलते दिया को ?
दिया बस नाम उसका रख दिया है ||
जलाता स्वयं वह अपने हिया को,
निशा मे दिव्य ज्योति भर दिया है |
तिमिर घनघोर जब छाये धरा पर,
अमावस कालिमा गहराती जाये |
दिया ने अग्नि को धर के हिया मे,
निशा मे ज्योतिरञ्चल भर दिया है |
सँभाले शीश पर आलोक मण्डल,
‘रवि’ की रिक्ति को भी भर दिया है ||१||
शिर पर दीप-शिखा ज्वाला जलाकर,
उदर बिच जीव शक्ति ही पिघलकर,
सिमटकर बातियों मे बह चली है |
भुवन मे आज यह ज्योति जली है ||
उबलता रक्त जिसका जल सका है,
वही बन दीप! जग मे जी सका है |
अधेरा बीच रहकर जो जरे हैं,
वही हैं दीप! जो तम को हरे हैं |
शिर का क्रिट ही, अग्निशिखा है,
नहीं वह सूर्य, मिट्टी का दिया है ||२||
गलाकर धृत उसे फिर सोखकर के,
स्वयं बाती जली है ज्योति बनके |
रुई का तन हुआ कालीख उसका,
और शिर ताप से संतप्त उसका ||
रुई का कोल शिर पर लाल होकर,
और घृत-वाष्प अपने शीश धरकर |
बनाकर केश निज, धनश्याम जैसी,
दहन से बन रही विद्युत छटा सी |
हिरण्यमय क्रिट, अपने शीश धारे,
गले मे नील-मणी की हार ड़ाले |
उबलते तेल मे शव सो रहा है;
तीली मुखाग्नि उसको दे रहा है |
समर्पण स्वत्व का वह कर दिया है,
दिया का नाम सार्थक ही दिया है ||३||
कभी ध्रुव सी अटल, यह ज्योति जलती,
पवन आगोस मे यह नृत्य करती |
पतंगे आ के, इसका ग्रास बनते,
शलभ सब लौ मे भस्मीभूत होते ||
उबलते तेल मे कुछ कीट आ के,
किनारे बह गये जलते दिया के |
नहीं कुछ इसपे उनका जोर चलता,
शलभ सेना के सम्मुख, लौ मचलता |
अमावस का अधेरा, हारकर के,
सिमट बैठा है कदमों मे दिया है ||४||
प्रकिर्णित रश्मि को करती रही है,
दिया यह रातभर जलती रही है |
घृत के अंत को अनुमान करके,
लौ को मन्द पड़ता जान करके |
दिया तल का अघेरा मुस्कुराया,
विजय की आस मे पग को बढ़ाया |
दिया ने अंत अपना जान करके,
बाती जल उठी उत्साह करके |
बहुत धुधुआ चुकि अब आग फूटे,
अग्नि पुंजित, किरण के वाण छूटे |
अधोतल का अधेरा लुप्त करके,
क्षण भर के लिए, आलोक करके |
दिया ने प्राण भी निज दे दिया है,
दिया का नाम सार्थक ही दिया है ||५||
किसी ने क्या दिया जलते दिया को?
दिया बस नाम उसका रख दिया है ||
~ रविशंकर मिश्र