सोमवार, 27 दिसंबर 2021

सपनों का सत्यानाश

   प्रिय दैनन्दिनी

           

            असफलता बहुत दुःखद है न ! विज्ञ जनों का कहना हैं कि हमे असफलता से घबराना नहीं चाहिए, हमेशा सकारात्मक सोचना चाहिए। सही है! पर ऐसा कर पाना बहुत ही कठीन हैं। और तब तो और जब असफलता हाथ पैर धोकर ही नहीं, पूरा नहा धोकर पीछे पड़ जाये। बार बार, हर बार, हर प्रयत्न पर, हालात जब हर हाल में हार पहनाने पर ही तूल जाए तो इसे क्या कहें?! अभाग्य!?

           दैनिके! क्या तुम भाग्य पर विश्वास करती हो?! भाग्य का तो पता नही, पर दुर्भाग्य जरूर होता हैं। कम से कम मुझे तो यही लगता हैं। यूँ तो सारा देश आजादी का अमृत महोत्सव मनाने में जुटा हैं। … काहे की आज़ादी! कैसी आज़ादी?! युवा लेखकों आज़ादी का इतिहास लिखो! स्वयं का भविष्य तो पता नहीं, इतिहास लिखो!  … 25 Dec, बड़ा दिन को सांता की संतई ने तो गिफ्ट में ऐसा हार पहना दिया कि दिन बिताना कठिन हो गया। क्या दिन सच मे बड़ा हो गया?! … मालवीय जी की जयंती थी। बगिया के मालियों ने तो नोच कर फेंक दिया! बहुतों को बालात् खरपतवार बना दिया जाता है। आखिर कोई करे भी तो क्या करें! पुष्पों के लिए जगह कम जो हैं। तो क्या विधि ने हमारे भाग्य में मात्र वनों में ही खिलना बदा हैं। …  संघर्ष हैं, जीव जगत में संघर्ष हैं। ऊर्जा पाने को! सभी ऊर्जावान बने रहना चाहते हैं। पर सकारात्मक बने रहना कई बार ऊर्जावान बने रहने से भी ज्यादा कठिन होता है। ऊर्जा तो जैसे तैसे प्राप्त किया जा सकता हैं। लड़ झगड़कर, चोरी चमारी से। बहुत से तरीके हैं; पर सकारात्मकता?! … सपने देखने चाहिए! खूब सारा!! और हर संभव प्रयत्न करने पर भी, जब एक भी सपना पूरा होने का नाम ही ना ले तो क्या करें!? फिर ऐसे सपनों का सस्ता मनोरंजन के सिवा क्या उपयोग!? कुछ नहीं! पता नहीं, कलाम साहब, सपनों के पीछे इतने दीवाने क्यों थे! शायद उनके सपने पूरे हो जाते होंगे। पर हमे तो सपने देखना भी गुनाह हैं। कुछ सोचे और करें; क्या मजाल कि वह सफल हो!! अपनी सफलता तो छोड़ ही दो! यहाँ तो हालात इतना खराब है कि यदि दूसरों का सहयोग भी कर दें; तो उस बेचारे का भी सत्यानाश हो जाता है। … प्रिये! दैनिके!! क्या सच में यह राहु की महादशा हैं!? 


 बुद्धयाविहीनमतिविभ्रमसर्वशून्यं,

     विश्वं भयाति विषमापदमृत्यु तुल्यम्। 

 व्यधिवियोगधनहानिविषानि चैव

      राहुर्दशासृजतिजीवितसंसयं च।।

       … सच में जीवित संशयम् च। यूँ तो पंचम में बैठकर लग्नस्थ बृहस्पति से दृष्टि, इसने मुझे सर्वज्ञता दिया हैं। पर सच मे, पिछले कई सालों से  त्रस्त कर दिया हैं इस माया ग्रह ने। इतना त्रस्त किया हैं कि मेरे जैसा सिद्धांतवादी ने भी फलित पढ़ने लगा। आज स्थिति यह है कि कुंडली पढ़कर दूसरों का भविष्य अनुमानित(Predict) करता हूँ। पर अपना?!? मति मारी गई हैं मेरी। …ज्योतिषी कहते हैं की प्रतीक्षा करो!  पर कुछ ढंग का हो नहीं रहा! आखिर बृहस्पति क्या उखाड़ लेंगें?! क्या बरसा जब कृषि सुखाने? आखिर कुछ तो होना चाहिये?! कुछ भी तो नहीं हो पाता। सारे प्रयास निरर्थक हो जाते हैं।…  हे! फलित के प्रवर्तकों! क्या जन्मांक और गोचर से भी ज्यादा बलवान हैं इसका दशा बल?! यदि ऐसा हैं तो फिर आग लगे तुम्हारे फलित शास्त्र को। … दैनिके! सच कहूँ तो अब कुछ नया सोचने और करने में डर लगता हैं। जब कुछ होने जाने वाला नहीं तो फिर किया ही क्यों जाये?! पर मैं करूँ तो क्या करूं?! दिमाग में हमेशा कुछ ना कुछ नया चलता ही रहता है। … भ्रमतीव च मे मनः। तो क्या केवल पुष्प दर पुष्प भटकते ही रहना है?! या कुछ मकरन्द भी एकत्र हो पायेगा?! मधुमक्खी!!! काहे को मधुमक्खी! मधुरता तो बचा नहीं। विधि की लेखनी से छला! बस स्याही की स्याहता ही शेष बचा है। समझ मे नहीं आता कि क्या लिखें? ...असीम स्याहता! 

         


गुरुवार, 7 अक्तूबर 2021

श्रीकोटी माता वन्दना

                 श्रीकोटी माता वन्दना

                                               (सुखडेहरी ग्राम )


 पद्माभां करुणाभिपूर्णनयनां बालार्कभाकर्पटां

      या संसारनियामिकां भयहरां सिंहासिनीम्मातृकां।

 या भक्तैः परिपूजिता शिवकरी भक्तेष्टिसिद्धिप्रदां

      सा श्रीकोटि विराजिता भागवतीं भूयात्प्रसन्ना मयि।।१।।


[ जिनके करुणा से पूर्ण नेत्र कमल के समान हैं, वस्त्र उदयकाल के सूर्य के समान लाल हैं।  जो संसार का संचालन करनेवाली, शेर पर सवार रहने वाली, माँ! जो कि सभी प्रकार के भय को हरने वाली हैं।  जो सदैव भक्तों द्वारा पूजित हैं। सबका मंगल करने वाली तथा अपने भक्तों को मनवांछित फल प्रदान करने वाली हैं। जो भगवती माँ हमारे गाँव के कोट(किला) पर विराजमान(स्थापित) हैं। वह श्रीकोटी माता मुझपर हमेशा प्रसन्न रहें। ]



 या देवी रविकोटिकान्तिसदृशं दुर्गामृगेन्द्रस्थितां

      या चन्द्रादपि शीतलां प्रियतमा माता सुधापायिनीं।

  या भूमेरधिका विशालहृदयां संसार पीड़ाहरां

      वन्दे सा सुखडेहरी जन सदां ग्रामेषु केन्द्रस्थितां।।२।।


 [ जो दुर्गा देवी कोटि(करोड़ों) सूर्य के समान उज्ज्वल हैं तथा सिंह पर विराजमान हैं।  जो देवीमाता चन्द्रमा से भी शीतल, भक्तों की  प्रियतमा(अपने भक्तों पर स्नेह करने के कारण भक्त भी जिनपर प्रेम/विश्वास रखते हैं।), सबका पालनहार(सुधपायिनी-जैसे माँ  दुग्ध पिलाकर शिशु का पालन करती है।), हैं। जिनका हृदय भूमि से भी अधिक विशाल हैं। जो संसार के सभी प्रकार के पीड़ा को हरने वाली हैं। हमारे गाँव के केंद्र में स्थित  उस कोटीमाता की हम सुखडेहरी के लोग सदैव वन्दना करते हैं। ]



 धात्रीं भक्तजनस्य शस्य सवनमऽन्नं मृदापं तथा

       माँ रक्षश्चसमस्तगोत्रचपुरः द्रुमम्पशूपक्षिणां ।

  दृष्ट्वा यत्प्रियमन्दिरं जनमनो नित्यं प्रसन्नायते

       वन्दे संकटनाशिनी भगवती श्रीकोटिमाता भजे।।३।।


[ हे! जगपालिनी माता! आप अपने भक्तजनों, हमारे फसलों, वन, अन्न, जल, मिट्टी,  वृक्षों पशूपक्षियों तथा समस्त गोत्रों(गांव के परिवारों/खानदानों) सहित सारे गाँव की सदैव रक्षा करें। 

 जिनका प्रियमन्दिर का दर्शन पाकर (को देखकर) लोगों का मन हमेसा(प्रतिदिन) प्रसन्न होता हैं।  समस्त संकटों का नाश करने वाली भगवती! कोटी माता की हम वन्दना(का हम भजन) करते हैं। ]


 ।। इति श्रीरविशंकरमिश्रविरचितं कोटिमातास्तुतिः सम्पूर्णम् ।।

             

जय कोटी माई ! .....


प्रिय दैनन्दिनी ,

य़ह स्तोत्र हमारे ग्राम देवी भगवती कोटी माता की अनुकम्पा से मेरे द्वारा पिछली नवरात्री(वासंतिक नवरात्रि) में रचा गया। समस्त संसार उस परम शक्ति के अधीन है। हम केवल माध्यम मात्र है। वह परम सत्ता ही हमारे ह्रदय व मन को सृजन करने के लिए प्रेरित करती है।

आपसबको शारदीय नवरात्रि की अंनत शुभकामनाएं।

रविवार, 19 सितंबर 2021

हरि अनन्त हर कथा अनन्ता

  प्रिय  दैनन्दिनी 

       आज पितामही जी ने अनन्त व्रत कथा सुनने की इच्छा प्रकट की, तत् हेतु मैं गूगल बाबा के शरण में गया। काफी देर तक सर्च करने के बाद भी संतोषजनक कथा विवरण नहीं मिला। फिर मैंने जो कुछ विवरण उपलब्ध था, उसके और स्मृति के आधार पर काम चलाने का विचार किया। माता जी ने कहा कि “लंगड़ा पंडित की दुकान से किताब लाओ और फिर ढंग से कथा कहो।” मध्याह्न होने वाला था। अतः मै अनुज-छोटू के साथ रामरेखा घाट गया और लंगड़ू के आपण से पुस्तक लाया। घर आया तो पिताजी कच्चा सूत से अनंत बनाने में व्यस्त थे। चुकि मुझे भी अनंत बनाने की कला आती है इसलिए सूत में चौदह गाँठ लगाने के काम में जुटना पड़ा। अनंत के सूत में गीरह लगते हुए बचपन की स्मृतियाँ नेत्रों में नृत्य करने लगीं। दैनिके ! आज गांव पर सुबह से ही हम लोग अनंत बनाने के लिए उत्साहित हो जाते थे। सूत तो हमें कोई छूने नहीं देता, हम बच्चे केवल सूत पूरने में सहयोग करते और बृद्ध, गुनी लोग अनत बनाते। अनंत बनाने की जिद्द पर हम लोगों को लम्बी लम्बी दूब(दूर्वा) लाने को कह देते और फिर हम लोगों को दूर्वा से ही गांठ लगाने का प्रशिक्षण दिया जाता। अरे! दैनिके क्या बताएं... दूर्वा बहुत नाजुक होती, बिलकुल तुम्हारे तन जैसी। फुस्स ...टूट जाती। फिर भी किसी तरह मैंने तो अनत बनाने की कला उसी से सीखी। बड़का बाबा अपने लिए बहुत मोटा अनत बनाते थे  और साल भर अपने बाह पर गेवठा बांधे रहते। बाकि सभी तो बस एक दिन वाले थे। शीघ्र ही अनत बन गया फिर पूजा के बाद कथा पढ़ते हुए मन में नाना प्रकार के विचार आ रहे थे… यह कथा कब लिखी गयी? अनंत आखिर है क्या? अनत के डोरे में चौदह गांठ ही क्यों होती है? … 

       प्रिय दैनन्दिनी … जैसा की सभी कथाएं वनवासी पाण्डवों द्वारा श्री कृष्ण से अपने दुःख के निदान हेतु प्रश्न से आरम्भ होती है; यह कथा भी अपवाद नहीं। अनत की कथा की नायिका शीला नाम की एक कन्या है। कौण्डिन्य मुनि द्वारा पाणिग्रहण के पश्चात शीला पति गृह को विदा होती है। मार्ग में यमुना के किनारे छकडा(बैलगाड़ी) रोककर कौंडिन्य मुनि संध्यावंदन हेतु जाते हैं। मध्याह्न का समय था, शीला ने कुछ स्त्रियों को अनंत भगवान की पूजा करते हुए देखा तो उनके पास जाकर इस दिव्य उपासना पद्धति की जानकारी प्राप्त की और उनके साथ अनंत भगवान का पूजन किया। कथा कहती है कि एक बार पति ने नाना मणियों से अलंकृत शीला के भुजा पर अनंत के डोरे को देखा और हे शीले! तुम यह डोरा क्या मुझपर वशीकरण प्रयोग के लिए बाँधी हो? ऐसा कहते हुए उसने डोरे को तोड़कर अग्नि की ज्वाला में फेक दिया। इस पापकर्म से कौण्डिन्य जी दरिद्र हो गये और वन वन भटकते हुए सब तरफ…  कोऽनन्तः?, कोऽनन्तः? पुकारने लगे। 

         प्रिये! …  कोऽनन्तः, कोऽनन्तः? … मनुष्य के सामने यह दार्शनिक प्रश्न सदियों से है।  यह कथा गीता से कुछ दार्शनिकता उधार लेती है। …  

 अनन्त इत्यहं पार्थ मम रूप निबोधय । आदित्यदिग्रहात्मासौ यः काल इति  पठ्यते।। 

 कलाकाष्ठामुहूर्तादिदिवारात्रिशरीरवान्।  पक्षमासर्तुवर्षाणि      युगकालव्यवस्थाया।। 

 योयं कालो मया ख्यातः सोनन्त इति कीर्त्यते । … 

 अनादिमध्यनिधनं कृष्णं विष्णुं हरिं शिवम्।  … 

 वसवो द्वादशादित्या रुद्रा एकादशा स्मृताः।  सप्तर्षयः समुद्राश्च पर्वताः सरितो द्रुमाः।। 

 नक्षत्राणि दिशो भूमिः पातालं भूर्भुवादिकम्। … 

       स्पष्ट है कि मनुष्य द्वारा प्रकृति के प्रेक्षणों और असीम आकाश, समुद्र इत्यादि के कारण दार्शनिकों के मन में अनंत विषयक संकल्पना का उदय हुआ। संभवतः भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी के दिन गुरुकुल के आचार्यों और विख्यात दार्शनिक विद्वानों की संगोष्ठी आयोजित होती हो। और इस तरह की संगोष्ठियों में अनंत जैसे दार्शनिक विषयों पर चर्चाएं भी होती होंगी।(आज तो हम केवल कथा पढ़कर/सुनकर और पुआ-पूड़ी खाकर इस अनंत का इतिश्री कर देते हैं; हमें अंनत के बारे में सोचने का अवकास कहाँ!?) सम्भवतः सुते में गांठ लगाना गणना की प्रणाली हो या विद्वानों की चतुर्दश विद्याओं का प्रतीक हो। जो भी हो परन्तु चौदह की संख्या से सर्वप्रथम चौदह भुवन याद आते हैं और कथा भी इस बात का उल्लेख करती है।(नक्षत्राणि दिशो भूमिः पातालं भूर्भुवादिकम्। …) मन में सहज ही एक प्रश्न उठता है कि क्या इन चौदह भुवनों का कोई भौतिक अस्तित्व भी हैं?... दैनिके! हाँ, इन सबका भौतिक अस्तित्व हैं। ये चौदह भुवन हमारी धरती के ही विभिन्न उपभाग हैं। परन्तु यहाँ हम इसके विस्तार में नहीं जायेंगे; इस विषय पर सप्रमाण चर्चा फिर कभी।  दैनिके! तुमको अनत बनाना आता है?... इसमें दोहरे डोरे में चौदह गांठ लगाते हैं…कुछ समझ में आया! दोहरे डोरे में चौदह गांठ… मतलब की अट्ठाईस(२८) फंदे लगाए जाते हैं। दैनिके! … नक्षत्र कितने थे? २८ ही थे न...। … जानती हो अनत के डोरे का जो अंतिम फंदा है न… वह आधा ही लग पाता है…चाहे कितना भी प्रयास कर लो! अट्ठाईसवाँ नक्षत्र अभिजीत पूर्णांक नहीं है न…तनिक विचार करो… मनु भी चौदह ही होते हैं न!... काल की अनंतता … मन्वान्तर। कथा तो सात की संख्याओं (सप्तर्षयः समुद्राश्च पर्वताः सरितो द्रुमाः ) को भी समाहित करती है।  दैनन्दिने! हमारे पुरखों की सोच कितनी उन्नत रही होगी न … एक ही प्रतीक में इतना कुछ समाहित कर दिया।

        प्रिये दैनन्दिनी!  शीला को पड़ते हुए … मुझे लीला याद आ गयी। 

        अरे रे रे … रुको रुको!  … लीला … लीलावती!  भास्कराचार्य की पुत्री? हाँ हाँ वही, लीलावती। इस बारह वर्षीय बालिका ने अपने पिता भास्कराचार्य जी को बहुत बड़ी संख्याओं को निरूपित करने के लिए एक ऐसी युक्ति सुझायी, जिसका हम आज भी प्रयोग करते हैं। यह बालिका ‘शतसहस्र’ जैसे शब्दों की जन्मदात्री थी। अर्थात लीलावती ने बहुत बडी सङ्ख्यओ को घात के रूप मे निरुपित करने की अद्भुत युक्ति सुझायी कहते हैं कि अपनी बेटी के विलक्षण मेधा से प्रभावित होकर भास्कराचार्य ने तत्कालीन समाज के विरोध के बाद भी लीलावती को गणित पढ़ाया। (क्या पता मुनि कौण्डिन्य की पत्नी शीला भी विदुषी रही हो? एक बात तो स्पष्ट है, वैष्णवों ने अनंत विषयक दर्शन को काफी आगे बढ़ाया।) भास्कराचार्य अपनी पुस्तक बीजगणितम् में अनंत के बारे में लिखते हैं - 

         खयोगे वियोगे धनर्णं तथैव च्युतं शून्यतः  तद्  विपर्यासमेति।

         वधादौ वियत्खसय खं खेन घातो खहारो भवेतखेन भक्तश्च राशिः।।

     भास्कराचार्य यहाँ शून्य से विभाजन को ख-हर राशि (अनंत) कहते हैं; और फिर ख-हर राशियों का स्वरूप बताने के लिए दर्शनशास्त्र की अनंत संकल्पना का प्रयोग करते हैं। 

         अस्मिन विकारे खहरेण राशा - वपि प्रविष्टेष्वपि निःसृतेषु। 

         बहुष्वपि स्यात् लय सृष्टिकाले ऽनन्तोऽच्युते भूतगणेषु यद्वत।।

      दैनन्दिने! … इस विषय पर पूर्व में भी हमारी चर्चा हो चुकी है न… अच्छा होगा की तुम अनन्त संकल्पना वाले लेख को फिर से देख लो। अरे यार! तुम बहुत भुलक्क़ड हो। …. अरे रे रे … जानता हूँ यार! जनता हूँ।  मैं क्षमा प्रार्थी हूँ प्रिये!... इसके लिए। पर क्या करूं? मैं ठहरा निपट आलसी। प्रति सप्ताह लिखने का वादा करके भी वर्षों बाद लिख रहा हूं।  ... अच्छा! एक बात सहज ही ध्यान आकर्षित करती है - सीमा प्रमेयों में 0, 1 और अनंतता ( ∞ ) सहित कुल सात व्यंजक  ( 0/0, ∞/∞, 0 × ∞, ∞ − ∞, 00, 1 एवं  ∞0 ) अनिर्धार्य हैं। आश्चर्य है न… ऋणचिह्नों के साथ इनकी संख्या चौदह हो जा रही हैं। ...हाँ, हाँ! मैं जानता हूँ कि यह बहुत बाद कि परिकल्पना हैं। फिर भी इसका अनन्त के चौदह गांठों से इस तरह से सम्बन्ध बन जाना…! आश्चर्यजनक ही हैं न!  

      अच्छा छोड़ो ये सब... ये बताओ कि प्रस्थ जानती हो?...  नहीं न…। यह पुराने समय में अन्न मापने का एक पैमाना होता था जिसमें अन्न,जल इत्यादि को वजन के हिसाब से नहीं अपितु आयतन के हिसाब से मापा जाता था। आज भी हम गांवों में अनाज को बर्तनों से माप कर सहज ही विनिमय कर लेते है न…!।  देखो न… इस बारे में भास्कराचार्य लीलावती में कितना सुन्दर परिभाषा देते हैं- 

     हस्तोन्मितैः विस्तृतिदैर्घ्यपिण्डैः  यत् द्वादशास्रम् घनहस्तसंज्ञम्।

धान्य-आदिके यत् घनहस्तमानम् शास्त्रोदिता मागधखारिका सा॥

द्रोणस्तु खार्याः खलु षोडशांशः  स्यात् आढकस्द्रोणचतुर्थभागः।

प्रस्थस्चतुर्थांशः इहाढकस्य प्रस्थ-आर्रय्ङ्घ्रिसाद्यैस्कुडवः प्रदिष्टः ॥ 

     अर्थात एक घन हस्त (एक हाथ लम्बा,एक हाथ चौड़ा, और एक हाथ ऊंचा पात्र का आयतन) को खारि कहते थे। खारी का सोलहवां भाग को द्रोण कहते थे और द्रोण के चौथाई को आढक। हाँ हाँ … वही  आढक, जिसमे की वर्षा के जल का मापन किया जाता था। और हम अक्सर सुनते है की पंडित जी के पतरे में इस साल इतने आढक वर्षा लिखी है क्या तुम जानती हो… इसी  आढक के चौथाई भाग को प्रस्थ कहते हैं। दैनिकेँ! … व्रत का विधान पूछने पर स्त्रियां शीला को क्या बताती है?... स्त्रियः ऊचुः -  शीले सदन्नप्रस्थस्य पुन्नाम्ना संस्कृतस्य च। … मतलब की अनत के दिन एक प्रस्थ अनाज का पुआ/मालपुआ बनाया जाता है। कुछ समझ में आया!?... यह कथा आठवीं से बारहवीं सदी के बीच लिखी गयी है। कम से कम शब्दप्रयोग और भाषा शैली से तो यही लगता है, मुझे। 


       दैनिके! आज के इस विज्ञान युग में हरित क्रांति ने लगभग सबके लिए अन्न सुलभ कर दिया है। खाद्य सुरक्षा की गारंटी वाले युग में हम लोग अन्न को उतना महत्व नहीं देते। परंतु हमेशा से स्थिति ऐसी नहीं रही है। हमारे पुरखों ने अन्न का अभाव देखा है। पुरनियों की वाणी कितना मार्मिक दृश्य प्रस्तुत करती है, “की पेट भरे रामनवमीआ, की अनतवा भाई। केहू से पेट ना भरे त, भरे जिऊतिया माई।।”  आज इस व्रत के साथ हम सभी अन्न संरक्षण हेतु भी संकल्प व्रत को धारण करें।  अस्तु! 

      प्रिय दैनन्दिनी! … अनन्तचतुर्दशी की अनन्त शुभकामनाओं के साथ… अनन्त प्रेम..! 

                                       तुम्हारा प्रेमाकांक्षी     ~    रविशंकर मिश्र 


सोमवार, 30 अगस्त 2021

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी

           


अहो तत्वज्ञोऽहं हृदयनिविडस्यान्धनिचितं
  सकामोवाभाग्योहतकृपणसाऽर्तो च कुटिलम्।
रतो नित्यं रासोः हरतिपटगोपीश्च निलजः
  तथामिच्छाभिश्च हृदयवसितो कृष्णछवियः।।


               ~ रविशंकर मिश्र 


 प्रतीयमान अर्थ :- अहो! मैं बड़ा ही तत्वज्ञ अर्थात महान मूर्ख हूँ। क्योंकि एक तो मैं अत्यंत कामी हूँ; भाग्यहीन, कृपण, दुःखी और कुटिल हूँ। मेरे हृदय में घना अंधकार व्याप्त हैं। और इतना कुछ होने पर भी मेरी इच्छा यह हैं कि नित्य रासलीला मे रत, गोपियों का वस्त्र चुरानेवाले उस निर्लज्ज की काली छवि मेरे हृदय में निवास करें। 


वास्तविक अर्थ :-  अहा! भले ही मैं अत्यंत कामी, भाग्यहीन, कृपण, दुःखी और कुटिल हूँ। मेरे हृदय में भले ही घना अंधकार व्याप्त हैं। तथापि मेरी इच्छा यह हैं कि नित्य प्रति श्री/लक्ष्मी के दान में निरत रहकर संसार के पालन-पोषण के कार्य को निष्पादित करने वाले; मोक्ष रूपी दीप्ति पर से शारिवा/श्यामलता के आवरण को हरने वाले, उस योगेश्वर श्रीकृष्ण की छवि मेरे हृदय में निवास करें। अतः मैं निश्चय ही तत्वज्ञ अर्थात परमार्थ को जानने वाला हूँ।


    रविशंकर मिश्र!

(आज भगवान श्रीकृष्ण की अनुकम्पा से योगेश्वर की स्तुति हेतु मैं(रविशंकर) इस छोटे से पद की रचना कर पाया। इसमे श्लेष का आश्चर्यजनक अनुप्रयोग हो गया हैं। आप सब पढ़िये और आशीर्वाद दीजिये।)


 आप सबको श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं।

   भाद्रपद कृष्ण अष्टमी(श्रीकृष्ण जन्माष्टमी), २०७८ विक्रमी; सोमवार।

 30 August 2021, Monday