शनिवार, 18 मार्च 2017

वसंतोत्सव : प्रेम अगिनी एवं सम्मत


     ‘प्रेम अगिनी’ में उदाशीनता के कारण अब ‘सम्मत’ विलुप्त होने के कगार पर है | धीरे - धीरे पुरानी पीढ़ी गुजरती जा रही है और नयी पीढ़ी को इस प्रेम अगिनी में किंचित भी रूचि नहीं है | आधुनिकता के दौड़ ने तो मनुष्य का परम्परागत ज्ञान व पारम्परिक सम्बंधो से ऐसा विच्छेदन कर दिया है कि, यह प्रेम अगिनी धुँधुआने सी लगी है | गाँव के बड़े-बुजुर्ग प्रेम अगिनी धधकाने की कला नवहों  को सीखना चाहते है ; और नवहे इसे स्मॉर्टफोन मे रिकॉर्ड करने और सेल्फियाने में लगे हैं | अब वह दिन दूर नहीं जब ये फाग, रिमिक्स होकर डी.जे. पर बजेंगे |
     आइये अब लोक गायन के  इस धुँधुआते ध्वनि का आनन्द लेते हैं |

  1.   लोभी हो नयना
               केकरा  सगे  खेलब  फाग |
               केकरा सगे   खेलबी फाग ||
  एह पार की लाकड़ी हो
              ओह पार  की आग ; ललना ...
              ओह पार  की  आग |
  प्रेम अगिनी धधकाई के हो
     प्रेम अगिनि धधकाई के हो ,
               सम्मत देहू जराय ; ललना ...
 लोभी हो नयना ....
              केकरा सगे खेलबी , फाग ?

   हा हा ...
    चोलिया हमरो धूमिल भई हो
       चोलिया हमरो धूमिल भइ हो |
                गोपी को ललचाय ; ललना ...
                केकरा सगे खेलब फाग ?
  कैसो  निठुर  मनमोहना हो !
    कैसो  निठुर  मनमोहना हो !
               मोही रहे टरकाय; ललना…

  लोभी हो नयना  
             केकरा सगें खेलबी; फाग ?

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     होलिका जरी जाय, होलिका जरी जाय
                          रहली  कंस  के  फूआ  |
     होलिका जरी जाय, होलिका जरी जाय
                          रहली  कंस  के  फूआ  |

     गोकुला में हरि होलिका के मरल
     गोकुला में हरि होलिका के मरल |
                          घर घर पाकल पूआ
                   अरे, घर घर पाकल पूआ ; हरि !
                       रहली  कंस  के  फूआ  |
      होलिका जरी जाय, होलिका जरी जाय
                          रहली  कंस  के  फूआ  |

      
      करईल की प्यारी धरती पर एक सुखडेहरी गाँव है ; जो अपनी संस्कृति के समन्वयन-संरक्षण हेतु इस आधुनिक युग में भी संघर्षरत है |

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