फाल्गुन कृष्ण पञ्चमी, बुधवार ; विक्रमाब्द २०७३
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि |
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ || ( रामचरितमानस )
संज्ञान-ज्ञानश्च विज्ञान ...
संज्ञानात्मक संवेदनाएँ ज्ञानोदय के पूर्व ही समस्त संसयात्मक तम का वेधन कर देती हैं | वसंतकालीन सूर्योदय ज्ञानोदय के समस्त चरणों को आलोकित करता हैं |
हम जिस जगत में रहते हैं, वह वस्तुओं लोगों एवं घटनाओं की विविधता से भरा हैं ; और इन विविध वस्तुओं का ज्ञान हमारी ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से हो पाता हैं | ये ज्ञानेन्द्रियां मात्र वाह्य जगत से ही नहीं अपितु हमारे अपने शरीर से भी सूचनाएँ संग्रहित करती हैं | हमारी ज्ञानेंद्रियों द्वारा संग्रहीत सूचनाएँ ही हमारे समस्त ज्ञान का आधार बनती हैं | ज्ञानेंद्रियाँ वस्तुओं के विषय में विभिन्न प्रकार की सूचनाओं को पंजीकृत करके उन्हें मस्तिष्क को प्रेषित करती हैं ; जो उन्हें अर्थवान बनाता हैं | हमारे आस-पास के जगत का ज्ञान तीन प्रमुख प्रक्रियाओं पर निर्भर करता हैं - संवेदना, अवधान तथा प्रत्यक्षण | ये तीनों प्रक्रियाएँ एक दूसरे से अत्यधिक अंतर्सम्बंधित होती हैं | इसलिए इन्हें समान्यतः एक ही प्रक्रिया संज्ञान के विभिन्न अंशों के रूप में समझा जाता हैं |
प्रेक्षण, प्रदर्श संग्रहण एवं विश्लेषण ज्ञान से सम्बंधित अनिवार्य चरण हैं | संसूचन एवं प्रदर्श पंजीकरण में हमारी सातों ज्ञानेन्द्रियों का महत्त्वपूर्ण स्थान है | विश्लेषण में बहुधा हम परिक्षण एवं भूल विधि का प्रयोग करते हैं | लेकिन चैतन्यों के लिए प्रत्यक्ष (डॉयरेक्ट) मंत्र-दर्शन भी संभव है | जब मन-मस्तिष्क का समन्वय होता है, तब उनकी गति अबाध हो जाती है ; दिक्काल की सीमा निःशेष पड़ जाती है | तब कहीँ जाकर मंत्र-दर्शन होते हैं | ….
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